डॉ शिवनन्दन मौर्य
किरोड़ीमल कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
31 अगस्त को अफगानिस्तानके कुनार प्रांत में छः तीव्रता का भूकंप आया और इसके बाद के दिनों में भी कई झटके भूकंप के देखने को मिले। अब तक मरने वालों की संख्या 2200 से ज्यादा हो गई है। और कुनार प्रांत में तबाह हुए घरों से सैकड़ो की संख्या में शव बरामद हो रहे हैं। 6 सितंबर को एक न्यूज़ पेपर में खबर देखने को मिलती है कि “वह अभी जिंदा थी। उनकी सांसे चल रही थी। उम्मीदें अभी बाकी थी। हाथों से इशारे कर करके मदद की भीख मांग रही थी। लेकिन अफ़ग़ानिस्तान में मलबे में दबी इन महिलाओं की जान बचाने से पहले एक शर्मसार परंपरा को बचाया गया। किसी ने उन्हें हाथ तक नहीं लगाया क्योंकि वे औरतें थी। यहां किसी पराए शख्स के द्वारा किसी महिला को छूना गुनाह माना जाता है”। आगे उसी में लिखा गया है की एक महिला को 36 घंटे बाद राहत कर्मियों ने देखा फिर भी उसे नहीं बचाया गया। इसका कारण तालिबान का फरमान है और बचाव दल में महिलाओं की संख्या का कम होना था। इसलिए वो मारने के लिए मजबूर थी। आगे उसमें बताया गया कि जिन्हें बचा भी लिया गया या किसी तरह से बच गई, उन्हें इलाज के दौरान में भी भेदभाव का सामना देखने को मिला। महिलाओं के बजाय चिकित्सक पुरुषों और लड़कों को इलाज में प्राथमिकता दे रहे हैं। इन सब के पीछे एक बड़ा कारण है कुछ कारण इस्लाम और कुछ कारण तालिबान द्वारा बने हुए सरिया कानून।
वैसे तो इस्लामी कानून महिलाओं को लेकर शुरू से ही कट्टर रहा है। लेकिन तालिबान सरकार उन कुरान और कुरान शरीफ को आधार बनाकर चरमपंथी और कानून में कट्टर हो गया। 2021 में अफगानिस्तान में पूरी तरह से तालिबान का सरकार हो गया। अफगानिस्तान को पूरी तरह से अपने नियंत्रण में लेते हुए 2024 में इस सरकार ने पुरुषों और महिलाओं के लिए कई कानून बनाएं। जो स्वतंत्र इच्छा और व्यवहारी स्वतंत्रता दोनों को बहुत ज्यादा सीमित किया। पुरुषों के लिए प्रतिबंध जिसमें अब वह फैशनेबल हल्की दाढ़ी नहीं रख सकेंगे, लंबी दाढ़ी ही रखनी होगी, जींस नहीं पहन सकते और पराई महिलाओं को सीधे देख भी नहीं सकते, नमाज पढ़ने जरूर जाना है, संगीत सार्वजनिक रूप से तेज आवाज में नहीं सुन सकते। यहां तक की जीवित प्राणियों की मूर्ति या तस्वीर बनाना बेचना खरीदना सब पर रोक है। इन पाबंदियों से अब अफगानिस्तान में पुरुषों के बीच बेचैनी है। अगर इस आदेश पालन नहीं किया तो नौकरी छूट सकती है। तालिबान की नैतिकता पुलिस द्वारा दंडित किया जा सकता है। इसी तरह महिलाओं के लिए जहां अफगानिस्तान में दो करोड़ 10 लाख महिलाएं हैं उनके लिए यदि वह घर से बाहर निकलती है तो उनका चेहरा और शरीर पूरी तरह से ढका हुआ होना चाहिए। और उनकी आवाज बाहर सुनाई नहीं देनी चाहिए अर्थात सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं को चुप रहना होगा सार्वजनिक स्थानों के साथ घर में भी गाना गाना और जोर से पढ़ना माना है। कपड़े टाइट नहीं पहनना है। गैर मर्दों से शरीर और चेहरा छुपाना होगा। अकेले सार्वजनिक साधन से यात्रा नहीं करनी उनके साथ भाई, पिता या पति जैसे पुरुष का होना जरूरी है। इस तरह महिलाएं वहां पर चलती फिरती लाश है। इन कानून का उल्लंघन करने पर कारावास या सार्वजनिक रूप से कोड़े मारे जाने या पत्थर मारकर मौत की सजा दी जा सकती है तालिबान का नैतिक मंत्रालय इन कानून को लागू करता है।
हाल ही में हुए उपरोक्त घटना और कट्टर कानून के आधार पर प्रश्न उठता है कि व्यक्ति की स्वतंत्र इच्छा कहां है? मरते हुए महिलाओं और बच्चों को देखकर मोरालिटी क्या मर गई थी? क्या किसी भी कानून को इतना जटिल और सख्त होना चाहिए कि उसमें आपात स्थिति में भी लचीलापन की कोई भी संभावना न हो? और इन सब पर अंतरराष्ट्रीय संगठन और मानवाधिकार क्या देखने के लिए बना है? तालिबान द्वारा महिलाओं को लेकर बनाई गई नीतियां ना तो नैतिक दृष्टि से उचित कहीं जा सकती हैं। और ना ही यह सार्वभौमिक मानव मूल्य के अनुरूप है इन नीतियों में महिलाओं की स्वतंत्रता, समानता, आत्मसम्मान, शिक्षा के अधिकार जैसे मूल अधिकारों का घोर उल्लंघन होता है।
इन्हें पूरी तरह से पुरुषों पर निर्भर बना दिया गया। यह सब उस नैतिक सोच के विरुद्ध है जो एक व्यक्ति को स्वाभिमान और आत्मनिर्णय का अधिकार देता है। और कानून भी इतना सख्त है की अपवाद स्वरूप घटनाओं में भी व्यक्ति महिलाओं को स्पर्श नहीं कर सकता। अफगानिस्तान सरकार को यह स्पष्ट करना जरूरी है कि किसी भी चीज को करने का इरादा क्या है? इरादा गलत है तो वह दंडात्मक है। जैसे हाल की घटना में मलबे में दबी हुई महिला को बचाने के लिए लोगों का मन तो किया होगा। लेकिन दंड के भय से ना बचा पाए। इसलिए आवश्यक है कि इरादों को महत्व दिया जाए और कानून या नियमों में थोड़ा सा लचीलापन होना चाहिए जिससे नैतिकता या मोरालिटी भी जिंदा रहे सके क्योंकि नैतिकता सामान्य समय में तो सब कुछ सामान्य लगता है परंतु नैतिकता की पहचान उपरोक्त जैसे केस में ही देखने को मिलती है।
मानवता तथा देश की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समृद्धि हेतु तालिबान सरकार को वर्तमान परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए कानून का निर्माण करना होगा, न की शरिया आधारित कानून क्योंकि इस्लाम का उदय और विकास तलवार के दम पर हुआ था। जहां पर स्त्रियों का कोई महत्व नहीं था। अतः वर्तमान परिपेक्ष को मद्देनजर रखते हुए हमें स्त्री और पुरुष दोनों का बराबर सम्मान रखना होगा और उन्हें स्वतंत्रता, समानता तथा शिक्षा का अधिकार देना होगा। शरिया का नियम मानवता से बढ़कर न हो, कोई भी धार्मिक (रिलीज़न) कानून किसी की जान बचाने से बड़ा नहीं होना चाहिए।
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